Friday, November 4, 2011

तलाश

किस्सा ये उन दिनों का है,
जब मेरे पास ना नौकरी थी और ना पैसे,
इसी कारण मेरा अधिकतर वक़्त
घर में ही गुज़रता ...बैठे बैठे.

उन दिनों मेरी मुलाक़ात एक
प्रेमी युगल से हुई, हमारी दोस्ती
झटपट हो गयी क्योंकि मेरे पास काम न था
और उनके पास
शायद मकान ...

हर सुबह जब मैं अख़बार लेने अपनी
बालकोनी में जाता, इन दोनों को
आशा भरी नज़रों से बहार
प्रतीक्षा करते हुए खड़ा पाता ...

फिर मैं कुछ पल बाद
अपनी चाय की प्याली के साथ
बालकोनी में बैठ सुबह का आनंद लेता,
ये दोनों भी वहीँ बैंच पर बैठते और
मैं हाल-चाल कर लेता.

फिर दिन भर मैं मेज़ पर बैठ
नौकरी तलाशता,
किताबें पढता और सिगरेट सुलगता.
इन दोनों की चहल पहल से ही
वो उदास घर कुछ
जीवित लगता....

पूरा दिन घर में गुज़ारने के बाद,
शाम को मैं पार्क में सैर करने जाता था,
सैर सपाटे के बाद जब मैं घर लौटता
इन दोनों को मैं गायब पाता था.

कुछ महीने बाद मुझे नौकरी मिल गई,
इन दोनों के साथ मैंने अपनी ख़ुशी और मिठाई बांटी,
मनचाहा काम, अच्छा वेतन ... मुझे लगा
मानो ज़िन्दगी संवर गई.

पर नहीं.
नयी नौकरी कुछ दिनों में पुरानी होने लगी,
मेरे निजी समय पर उसकी पकड़ भी मज़बूत होने लगी,
धीरे-धीरे 'मेरे समय' की इस रस्साकशी में,
नौकरी विजयी होने लगी.

फिर दिवाली की सफाई के दौरान,
कमरे के रोशन -दान में
एक अधूरा घोंसला मिला,
ठीक वहीँ जहां वो दोनों सारा दिन
बैठे रहते थे.