Monday, August 16, 2010

बे'कार' की बात ....



बात कुछ उन दिनों की है,
जब मैं कॉलेज में पढता था.
उन दिनों जब किसी की नयी कार को देखता,
तो मन प्रसन्न हो जाता था.
मन में सपने फूटते, और मैं कार को
उन्नति का एक प्रतीक मानता था.

वो मेरी कॉलेज वाली अमेरिकेन सोच में
अब काफी भारत-पन आया है.
अब कोई नयी कार देख के, मन
कहता है "यह सब मोह-माया है".
उस सज्जन को मेरा दिल गाली देता है,
"साले यहाँ ट्राफ्फिक तूने ही बढाया है"

मैंने भी एक मोटर-साइकिल लाके,
इस ट्राफ्फिक में योगदान किया है.
और इसी ने मेरे और कार वालों के,
समीकरण को एक नया मोड़ दिया है.
इनके पैने होर्न और अहंकारी ढंग ने,
मेरे गुस्से की आग को घी दिया है.

एक वातानुकूलित बंद डब्बे में बैठके,

ये कार वाले स्वयं को शहंशाह समझते हैं

अपनी गाडी पे लाल रंग का 'L' चिपकाकर,

सड़क को अपनी जागीर और खुद को शूमी समझते हैं.

और तो और बारिश का पानी,

राहगीरों पर उछालकर,

खुद को मनोरंजित भी करते हैं.


मेरे कार वाले हम-राही दोस्तों, आज हम

मोटर-साइकिल वाले तुमको एक सीख देते हैं.

सड़क को एक साधन या अतिवेदना मत समझो,

हम लोग तो सफ़र को ही मंजिल बना लेते हैं.

अपनी पॉवर-विंडोस खोलो और कभी मौसम का मज़ा लो,

हम तो सूरज को भाई और चाँद को महबूबा कहते हैं.

पर कभी कभी मुझे तुम लोगों के लिए बहुत बुरा लगता है,

क्यूँकि 'टोल' तुम देते हो और सड़क का लुत्फ़ हम उठा लेते हैं.